Sunday, June 26, 2011

"भारत की खोज में भटका हूँ"


मैं तो विशुद्ध भारतीय हूँ जी. ऐसा इसलिए कहना पड़ रहा है कि यदा-कदा संकर प्रजाति के लोगों को देखकर थोडा असहज महसूस करता हूँ. ये ऐसे लोग हैं जो कि न तो भारत और भारतीयता को स्वीकार पाते हैं और न ही नकार पाते हैं. 
खैर आज के पोस्ट के लिए सोची समझी विषय वस्तु पर आते हैं. दरअसल मैं बात करने जा रहा था भारत में ही दो स्थानों के बीच न केवल  भाषाई बल्कि मानसिक भिन्नता की भी. मै किसी उत्तर दक्षिण की बात करने नहीं जा रहा हूँ. क्योंकि ऐसा कह कर तो राजनितिक रोटियां सेंकी जाती है. इन छुद्र राजनीतिज्ञों के राजनीति का ही फल है की इस उत्तर दक्षिण के चक्कर में स्वतंत्रता के ६४ वर्ष के बाद भी पूरे देश को एक सूत्र में जोड़े रखने  के लिए हम अबतक एक भाषा सुनिश्चित नहीं कर सके हैं.
भारत के एक छोटे से गाँव से शुरुआत कर कुशीनगर,गोरखपुर,बेतिया आदि छोटे शहरों से लेकर इलाहाबाद , लखनऊ और कानपुर जैसे बड़े शहरों में रहने का थोडा अनुभव रखता हूँ. जैसा की मेरे पिछली पोस्ट के द्वारा आपको विदित होगा की आजकल ट्रेनिंग और प्रोजेक्ट के लिए बंगलुरु में हूँ. वो भारत जहां  मैं अबतक रहता आया हूँ और वो जहाँ मैं आजकल रह रहा हूँ के बीच मुझे जो कुछ अंतर दिखा उसे एक पोस्ट के माध्यम से समेटने का मन बनाया और बैठ गया एक नई पोस्ट लिखने. मैंने क्या कुछ देखा और समझा उसे सूचीबद्ध करता हूँ......
१. बात करते हैं कुछ पूछे जाने पर उसके प्रतिउत्तर का. हाल ही का उदहारण दे रहा हूँ. आते समय मैंने झाँसी स्टेशन पर एक महानुभाव से एक पता पूछ लिया. फिर तो वो जैसे हमारे पीछे ही पड़ गए. मैं कहा से आ रहा हूँ? कहा जा रहा हूँ? क्यों जा रहा हूँ? इत्यादि पूछने के बाद उन्होंने जो कुछ भी बताया ,वो मेरे प्रश्न का उचित उत्तर नहीं था,जो कि मेरे साथ पहले भी कई बार हो चुका है. यहाँ पिछले १० दिन से रहते हुए ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. मैने जो कुछ पूछा, जितना पूछा, उसका उचित उत्तर पाया. कारण यहाँ के लोगों की व्यस्तता कहिये, जल्द बताकर टालने की प्रवृति कहिये या फिर उचित जानकारी होने पर ही उत्तर देने की स्थिति.  असलियत चाहे जो भी हो मुझे ये बातें अच्छी लगीं.
२. किसी कार्यालय के सबसे बड़े अधिकारी को  पहली बार एक साधारण सा आवेदन पत्र लेकर ( जिसे की मैं लेकर गया था) अपने ही कार्यालय में इधर-उधर दौड़ते देखा. जिनसे मेरा परिचय और इतिहास बस इतना सा था कि मैं ट्रेनिंग के लिए आया एक विद्यार्थी था और ट्रेनिंग ख़त्म होने के बाद शायद फिर कभी मिलना भी न हो. आपको बताता चलूँ की जहाँ से होकर मैं आया हूँ, रिक्शे वाले भी अपनी औकात दिखाने से बाज नहीं आते. फिर अधिकारी और ऑफिस के काम का क्या कहूँ? कुछ ही दिन पहले ही चक्कर लगाकर आया हूँ,वहां तो चहूँ ओर बेवजह की व्यस्तता है जी.
३. वो लोग जिनके साथ काम करना है उनका वर्ताव देखकर तो ऐसा लग रहा है जैसे की जाने कब का परिचय हो. हालांकि उन लोगों के जिम्मे अपना भी ढेर सारा काम है,लेकिन पूछे जाने पर चीजों को इतने अच्छे से समझाते और बताते है जैसे की यहाँ इसी काम के लिए बैठे हों. ज्यादा कुछ नहीं लिखूंगा नहीं तो पोस्ट पढ़कर वे लोग इसे खुशामदी का तरीका न समझने लगें. इनके बारे में वहाँ पहुँच कर बताऊंगा.
४. पिछले कुछ दिनों से यहाँ रहते हुए जहाँ तक समझ पाया हूँ यहाँ जाट आन्दोलन,गुर्जर आन्दोलन,कायस्थ महासभा,ब्राह्मण महासभा जैसी कोई बात समझ नहीं आई. मेरे विचार से ऐसा करने वाले,कराने  वाले और इसमें भाग लेने वाले देश के सबसे बड़े दुश्मन है. एक सपनों का भारत जिसकी मैं परिकल्पना करता हूँ उसमे ऐसे लोगों के लिए कोई जगह नहीं है.
५. यहाँ का सदा एक सा बना रहने वाला तापमान( ११-३८ डिग्री से.) मुझे सबसे अच्छा लगा. यहाँ के इतने खुशनुमा वातावरण की वजह तलाशने की कोशिश तो की है पर अबतक सफलता नहीं मिली है. अबतक तो यही मान बैठा हूँ की ये सब यहाँ के भौगोलिक स्थिति की वजह से है. परन्तु एक बात और समझ में आती है कि यहाँ पेड़ पौधे भी तो ज्यादा हैं.
६. पेट भरे होने के बाद हाथ पैर तोड़कर बैठने के बजाय यहाँ काम के प्रति प्रतिबद्धता ज्यादा दिखी.
७. ट्रेन में हमारे साथ एक बूढी महिला आई थी. रात को करीब २ बजे जब हम लोग स्टेशन पहुंचे तो उनकी बेटी अपने पति के साथ स्टेशन पे खड़ी मिली. घर से दूर आकर ही सही कम से कम माता पिता के प्रति सम्मान तो दिखा. यहाँ तो लोग सुबह कुत्ते के साथ टहलने के लिए सुबह जग सकते है, उसके खान पान और दिनचर्या का ख्याल कर सकते हैं, लेकिन माता-पिता का क्या???
८. यहाँ अपने घर का कचरा दूसरे के घर के सामने या फिर सड़क या किसी खुली जगह पर फेंक देने के बजाय नगरपालिका के गाडी का इन्तजार किया जाना श्रेयस्कर काम है. शायद यही कारण  है कि ये "क्लीन सिटी" के नाम से जाना जाता है. कूड़े के समुचित निष्कासन की व्यवस्था के साथ-साथ लोगों की सफाई के प्रति प्रतिबद्धता भी सराहनीय है.
९. यहाँ जहाँ रह रहा हूँ लोगों का व्यवहार बहुत सकारात्मक है. अनजान शहर से आये अनजान लोगों के साथ कुछ इस तरह का व्यवहार पहली बार देख रहा हूँ. हालांकि इसमें हमारे व्यवहार का भी कुछ प्रभाव हो सकता है फिर भी मैं खुद भी ऐसे व्यवहार को लेकर कभी-कभी असहज महसूस करता हूँ.
१०. यहाँ रहते हुए ज्यादा कुछ लिखने के बजाय कुछ बातें यहाँ से जाने के बाद लिखूं तो ज्यादा श्रेयस्कर  होगा. प्रशंसा कर  देने के बाद लोगों के विचार परिवर्तन का भी तो खतरा है जी. अतः सोच समझकर यथोचित बातें लिखने में ही भलाई है. समयानुसार कुछ और बातें होती रहेंगी.
अंततः यही कहना चाहूँगा की इस भारत को मैंने अपने सपनों के भारत के कुछ करीब पाया. लेकिन भारत की तलाश अभी जारी है. देखते हैं कब ,कहाँ और कैसे मिल पता हूँ अपने सपनों के भारत से. तबतक तो कही अटका ही हूँ, या यूँ कहूँ भटका ही हूँ भारत की खोज में.

धन्यवाद"

2 comments:

Ayush Pandey said...

हमने भी महसूस किया है भाई. तलाश जरी रखिये,,,,,,

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

बहुत अच्छा पर्यवेक्षण किया है आपने। देशाटन का यही लाभ है कि हम जहाँ जाँय वहाँ की अच्छी बातें नोट करें, सीखें और दूसरों को भी बताएँ। निश्चित ही ट्रेनिंग के अतिरिक्त आप बंगलुरू से दूसरी अच्छी बातें भी सीख कर लौटेंगे। बधाई और शुभकामनाएँ।